Saturday, December 30, 2017

बढ़ता रह , चलता रह, बहता रह ....रश्मि सिंह लेखिका

बढ़ता रह , चलता रह, बहता रह 

मुठ्ठी जो फैलायी मैंने , उसने पूछा चाहिए क्या ?
थोड़ी सी ज़मीँ , थोड़ा आसमां
ख्वाहिश तो यही है पर ...
सपनों का क्या करूँ जो
पलकों पर बसते हैं ?
दे सको तो थोड़े थोड़े सपने भी पूरा कर दो -
वो मुस्कुराया और पूछा -
थोड़े सितारे भी भेज दूँ ?
मैं हैरान - या खुदा कैसे तू ने जान ली
 मेरी दिल की बात ?
वो फिर हँसा - बाज़ीगर तो हूँ मैं -
सपनें दिखाता हूँ
सपनें ही बाटता हूँ -चाहे जितनी लो
क्यूँ हाथ फैलाए भिखारी बना खड़ा है?
पहचान अपनी शक्तियों को
बलवान है तू तन से
मन से अपंग क्यूँ है ?





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मैं तो एक भरोसा हूँ
सत्य तो खुद तू है
सत्य को पहचान , पग संभाल
बढ़ता रह , चलता रह, बहता रह
हिम्मत कर - पुकारेंगी मंज़िलें खुद तुझे
 राहें खुद बनेंगी
सत्य को पहचान , पग संभाल
बढ़ता रह , चलता रह, बहता रह! Copyright रश्मि सिंह लेखिका
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